April 2, 2023

कवि सम्मान री अनूठी मिसाल ~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

कवि मनमौजी अर कंवल़ै काल़जै रो हुवै। जिण मन जीत लियो कवि उणरो कायल। इण मामलै में वो छोटो कै मोटो नीं देखै। ओ ई कारण है कै वो निरंकुश कहीजै। बुधजी आसिया भांडियावास, कविराजा बांकीदासजी रा भाई पण उणां री ओल़खाण आपरी निकेवल़ी मतलब मनमौजी कवि रै रूप में चावा। एक’र बीमार पड़िया तो दरजी मयाराम उणां रा घणा हीड़ा किया। उणरी सेवा सूं रीझ’र बुधजी ‘दरजी मयाराम री बात‘ लिखी। आ बात राजस्थानी बात साहित्य री उटीपी रचनावां मांय सूं एक।

ऐड़ी बात चालै कै इणरी अजरी बणगट माथै रीझ’र भाद्राजून ठाकुर संगरामजी बुधजी नै कह्यो कै आप- “मयाराम दरजी रा जागा संगराम शब्द लिखदो अर बदल़ै में लाख-पसाव ले लिरावो।” ओ प्रस्ताव सुण’र कवि कह्यो कै- “म्हैं गुणचोर नीं हूं। म्हनै लाखपसाव नीं जे थे करोड़-पसाव ई दिरावो तो म्हारै सारू धूड़ जैड़ो है। मयाराम जिण निश्छल़ भावां सूं म्हारी सेवा करी वा घणी महताऊ है।” बुधजी री आ बात किणी समकालीन कवि नै दाय नीं आई। उण कवि रो मानणो हो कै बात रो चरित-नायक कोई साधारण आदमी नीं हुय’र कोई ठाकुर हुवणो चाहीजै। जद उण कह्यो-

दरजी कोडी डोढ रो, बणी लाख री बात।
हाथी री पाखर हती, दी गधै पर घात।।

पण मिनखपणै रा पुजारी कवि माथै लालच रो कोई प्रभाव नीं पड़ियो।

बुधजी रै मनमौजीपणै रा लोग कायल अर पुजारी हा। एक’र किणी राजपूत सूं इण बात माथै जिद हुयो कै- “अजै ई धरती माथै ऐड़ा राजपूत है जिकां रै मनमें चारण कवेसरां रै प्रति इतरो आदर है कै वै उण कवि रो खण राखण सारू कोई पण काम निसंकोच कर सकै।”

आ सुण’र उण राजपूत कह्यो- “बाजीसा इण हेकड़ी में मत रैवजो कै आप चावो ज्यूं किणी राजपूत सूं करायलो! हमै उवै बातां गी। खण लियो तो पूरो हुवणो अबखो हुय जावैला।”

बात खंचगी। बुधजी उण राजपूत नै कह्यो- “हाल मोकलसर सेरसिंह बाला रै अठै।”

विदित रैसी कै मोकलसर ठिकाणो राव रिड़मलजी रै बेटे भाखरसी रै सपूत बालाजी रो। बालाजी सूं ई राठौड़ां री बालावत/बाला शाखा चाली। सेरसिंहजी सायत छोटै भाइयां में हुसी। क्यूंकै बांकीदासजी री ख्यात में कविराजा उण बखत रै मौजूद ठाकुरां तक री पीढियां दी है, जिणांमें सेरसिंहजी अर उणांरै पिता अभजी रो नाम नीं है।

बुधजी अर उवो राजपूत सेरसिंहजी रै अठै आय मैमाण बणिया। रोटी री त्यारी हुवण लागी जणै बुधजी कह्यो कै- “ठाकुरां म्हैं आपरै अठै रोटी नीं जीमूंलो।”

आ सुणर ठाकुरां कह्यो- “क्यूं हुकम ? ओ तो आपरो घर है। अठै नीं तो कठै? अर गल़ती कांई जको आप म्हारै घरै कुरल़ो नीं थूको?”

आ सुण’र बुधजी कह्यो- “बात आ है ठाकुरां कै म्हैं प्रण ले लियो कै म्हैं रोटी उणी ठाकुर रै अठै जीमसूं जको खुद कुए जाय’र म्हारै सारू पाणी रो घड़ो लावैला अर उणरी जोड़ायत खुदोखुद घरटी मांड’र पीसणो पीसैला अर खुद ई रोटियां बणावैला। जणै ई म्हैं जीमूंला।”

आ सुण’र ठाकुरां कह्यो- “कै इण प्रण नै पूरणो तो एकदम सहल। अजै म्हारा अर ठकराणी रा हाथ पग काम देवै। थांरै कारण ओ काम करणो म्हांरै सारू अंजसजोग।”

ऐड़ै मोटै मन रै मिनखां सारू ई सायत बांकीदासजी ‘दातार-बावनी’ में लिखै-

जग दातार जनारदन, गिरधारी गुण गेह।
व्रजपत रोटी बांटणा, मोटी नींद म देह।।
अर्थात हे जगदातार जनार्दन ! आप अन्न-दान करण वाल़ै उदारमनां रै पाखती कदै ई मोत मत आवण देवजो।

ध्यातव्य है कै उण बखत ठाकुर-ठकुराणी री ऊमर सत्तर वरसां रै लगैटगै ही। ठाकुर सेरसिंहजी खुद कुए जाय’र पाणी रो घड़ो लाया तो अठीनै उणां री जोड़ायत जैतां बोड़ीजी खुदोखुद आटो पीस’र हाथ सूं रोटियां बणाय’र उण मनमौजी कवि नै स्नेह रै साथै जीमायो।

आ घटना देख’र उवो राजपूत मानग्यो कै अतिथि देव तुल्य मानणिया मिनख अजै मौजूद है। धरती निरबीज नीं हुई है।

कवि इण पूरी घटना माथै 8 दोहालां रो एक गीत बणायो जिको आज ई इण घटना रो साखीधर है अर बात नै सटीक सिद्ध करै कै-“कवि की जबान पे चढै सो नर जावै ना।” कविवर बुधजी लिखै-

आयो इक पात आदरै ऊंधी,
छल़ कर तोत छल़ायौ।
मोकलसर सेरो मन मोटै,
पैलो सकवी पायौ।।

पिडां ठाकर लावै पाणी,
पिड ठकराणी पीसै।
धीरी बात इसी बिण धणियां,
रिजक न खावै रीसै।।

सेरो सुरंद सोल़मो सोनो,
नीपण व्रनां नकूं नटै।
सुत अभमाल करन जिम सहिजां,
कीधां दरसण पाप कटै।।

वरसां सितरां मांय वुओड़ो,
अंगां घड़ो उठायो।
जग दातार कोस इक जाऐ,
लैण सुजस भर लायौ।।

बेहूं पखां उजाल़ण बोड़ी,
सीता सरखी साता।
चारण व्रनां लेखवै छोरू,
मांडी घरटी माता।।

सेरा धिनो सुभावां सुखत्री,
पिडां लायो पाणी।
पीणो बोड़ी हथां पीसियो,
जका बात जुग जाणी।।

जग जैचंद हमीर जही जग,
अचड़ां सेर उबारी।
सेरा री कांमण धन सहजां,
सुजस हुवो धर सारी।।

सांभल़ वात कह्यो जग सारै,
बाला धिन, धिन बोड़ी।
सूरज-चांद जितै आ साबत,
जगमें रहजो जोड़ी।।

आ जोड़ी आज ई लोकाख्यानां में अमर है तो साथै ई अमर है कवि बुधजी रै प्रति इणांरो निछल़ सम्मान अर स्नेह। सायत ईसरदासजी ऐड़ो स्नेह राखणियां सारू ओ दूहो लिखियो हुसी-

नेह लग्गा सोइ सग्गा, जो हर कोई होय।
नेह बिहूणा ईसरा, नहीं सगाई कोय।।

~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
%d bloggers like this: