क्रांतिकारी कानदासजी मेहड़ू परिचय
जन्म:- संवत 1867 (बालवय मा माता ने पिता नु अवसान)।
अभ्यास:- संवत 1867 मा, बाळ अवस्था मा भुज पाठशाला मा गया।
शिग्रविध्या अने कवि नो इल्काब:- 18 वर्ष पाठशाला माँ रही संवत 1890 माँ शिग्रविध्या अने कवि नो इल्काब (भुज ना राजा तथा आचार्य श्री नी कृपा थी मेळव्यो)।
हिंगलाज यात्रा:- 1890 माँ अभ्यास पुरो करी हिंगलाज यात्रा ए गया।
सामरखा माँ आगमन: – 1891 मा कच्छ ना राजा तरफ थी लाख पसाव लई ने सामरखा आव्या।
बोरियावी मा आगमन:- 1891 माँ बोऱियावी मा 11 एकर 20 गुंथा जमीन राखी कुवो बंन्धाव्यो तथा सामरखा मा हवेली बंन्धावी।
विवाह-
●१. 1893 मा वालोवड गामे देथा माँ प्रथम लग्न कर्यु,
●२. 1895 मा मुवाड़ा नांधु मा बीजु लग्न कर्यु
●३. 1901 मा रामोदड़ी मा वरसड़ा मा त्रीजु लग्न कर्यु।
●संवत 1912 मा पाड़ला विसभाई ने दहेज़ माँ आप्यु।
●संवत 1915 मा पाड़ला राजद्रोह थी खालसा थयु।
●संवत 1917 शिवराजपुर वगेरे 12 गाम।
●संवत 1917 थी 1923 देवगढ़ ना दिवान।
●संवत 1923 थी 1925 वड़ोदरा गायकवाड़ ना राजकवि।
●संवत 1925 मा 58 वर्ष नी वये अवसान पाम्या।
●संवत 1897 माँ प्रथम पुत्र विसाभाई महेड़ू नो जन्म अने संवत 1932 मा 35 वर्ष नी वये विसाभाई नुं अवसान।
मोसाळ – नांधू
●संवत 1899 माँ बीजा पुत्र हलुभाई महेड़ू नो जन्म अने संवत 1954 मा 55 वर्ष नी वये हलुभाई महेड़ू नुं अवसान मोसाळ- नांधू
●संवत 1900 मा त्रिजा पुत्र ऊमाभाई महेड़ू नो जन्म अने संवत 1976मा 76 वर्ष नी वये ऊमाभाई महेड़ू नुं अवसान
मोसाळ – देथा
●संवत 1901 माँ प्रथम पुत्री श्री रूपालिबा माँ नो जन्म अने संवत 1995 मा 94 वर्ष नी वये श्री रूपालिबा माँ नुं अवसान।
मोसाळ – नांधू
●संवत 1903 माँ चोथा पुत्र रतनसिंह महेड़ू नो जन्म अने संवत 1974 माँ 71 वर्ष नी वये रतनसिंह महेड़ू नुं अवसान।
मोसाळ – नांधू
●संवत 1905 मा पाँचमा पुत्र दौलतसिंह महेड़ू नो जन्म अने संवत 1947 मा 42 वर्ष नी वये दौलत सिंह महेड़ू नुं अवसान
मोसाळ – वरसड़ा
संवत 1910 मा बीजा पुत्री जीजीबाई नो जन्म अने संवत 1920 मा 10 वर्ष नी वये जीजीबाई नुं अवसान।
मोसाळ – वरसड़ा
जानकारी प्राप्त:- नीतिनदान महेड़ू सामरखा
कानदास मेहडू ने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य में गुजरात के राजवीओं को ब्रितानियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा फरमाई गई हों ऐसी संभावनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों के विरूद्ध शस्त्र उठाने वाले सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनका पाल गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रमणलाल धारैया ने यह उल्लेख किया है कि “खेडा जिले के डाकोर प्रदेश के ठाकोर सूरजमल्ल ने 15 जुलाई 1857 के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गांव की जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्रोह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड़ लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एडूजा ने पाला गांव का संपूर्ण नाश किया था।”
डॉ. आर. के. धारैया ने “1857 इन गुजरात” नामक ब्रिटिश ग्रंथ में भी उपर्युक्त जानकारी दी है। और अपने समर्थन के लिए Political department volumes में से आधार प्रस्तुत कर यह जानकारी दी है। इससे जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान दिया था। अलबत्ता यहाँ Kandas Charan और Pala का अंग्रेजी विकृत नाम है।
ब्रितानियों ने हमारे अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से उल्लेखित किये हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि संदर्भों को उद्धृत किया जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कानदास मेहडू अर्थात् कानदास चारण और Pala अर्थात् पाला एक ही है।
‘चरोतर सर्वे संग्रहे’ के लेखक पुरूषोत्तम शाह और चंद्रकांत कु. शाब भी यह उल्लेख करते है किं “कानदास महेडु सामरखा 1813 में संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुएं थे। 1857 के आंदोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों को मदद करने के कारण पकड़ लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा कर अपनी जंजीरें तोड़ डाली थीं। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ दिया था।”
1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में कानदास का गाँव जप्त कर लेने के दस्तावेजी आधार भी हैं। कवि ने कैद मुक्त होने के बाद अपना गांव वापस प्राप्त करने हेतु किया हुआ पत्राचार भी मिलता है। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के चारण साहित्य हस्तप्रत भंडार में कानदास मेहडू के इस प्रकार के दस्तावेज संग्रहीत हैं। अपने आप को ब्रितानियों की कैद से मुक्त करने हेतु दरियापीर की स्तुति करते हुए रचे गए छंद भी मिलते हैं।
ब्रितानियों ने कानदास को कैद कर उनको गोधरा की जेल में रखा था और उनके हाथ-पाँव में लोहे की भारी जंजीरें डालकर अंधेरी कोठरी में रखा गया था। अतः कवि ने अपने आपको मुक्त करने के लिए दरियापीर की स्तुति के छंद रचे और ब्रितानियों के सामने ही उनके कदाचार तथा अनुचित कार्यों को प्रकट किया।
ग्यारह मास की जेल के बाद कवि कानदासजी पर कानूनी कारवाई हुई, उनको प्राणदंड की सजा हुई, उनको तोप के सामने खड़ा रखा गया किन्तु तोप से विस्फोट नहीं हुआ। इससे या और कुछ कारण से कवि को ब्रितानियों ने मुक्त किया, उनका पाला गांव वापस नहीं किया।
सजा मुक्त हुए कानदासजी को वडोदरा के श्री खंडेराव गायकवाड़ ने अपने यहाँ राजकवि के रूप में रखा। उत्तरावस्था में उनका मान-सम्मान वृद्धि होने पर लूणावाड़ा के ठा. दलेलसिंह ने संदेश भेजा कि आपको पाला गांव वापस देना है, उसे स्वीकार करने हेतु पधारकर लूणावाड़ा की कचहरी पावन कीजिए। अलबत्ता दलेलसिंह ने 1857 में ब्रितानियों को मदद कर मातृभूमि के प्रति गद्दारी की थी, इसीलिए, कवि ने गांव वापस प्राप्त करने के बजाए उपालंभ युक्त दोहा लिखकर भेजा-
रजपूतां सर रूठणो, कमहलां सूं केल;
तू उपर ठबका तणो, मारो दावो नथी दलेल।
इस तरह कवि ने व्यंजनापूर्ण बानी में दलेलसिंह को अक्षत्रिय घोषित किया, क्षत्रिय को डाँटने का चारण का अधिकार है।
कानदास मेहडू ने सर्वस्व को दाव पर रखकर मातृभूमि को आजाद करनें के प्रयत्न किये हैं। इसी कारण से ही ब्रितानियों ने स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान कवि को कैद में रखकर उनको भारतीय प्रजा से अलग कर दिया गया ताकि वे काव्य सृजन द्वारा समाज में तद्नुरूप माहौल का निर्माण कर न सके।
ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजितसिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजितसिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजितसिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजितसिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। इनकी क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-
मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;
गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत
कानदास मेहडू एवं अजितसिंह गेलवाने ने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।
जिस तरह पंचमहाल को जगाने का काम कानदास चारण और अजित सिंह गेलवा ने किया। इसी तरह ओखा के वाघेरो को प्रेरित करने का काम बाराडी के नागाजी चारण ने किया। 1857 में ब्रितानियों के सामने हथियार उठाने वाले जोधा माणेक और मुलु माणेक को बहारवटिया घोषित करके ब्रितानियों ने बड़ा अन्याय किया है। सही मायने में वह स्वतंत्रता सेनानी थे। आठ-आठ साल तक ब्रितानियों का प्रतिकार करने वाले वाघेर वीरों को ओखा प्रदेश की आम-जनता का साथ था। इस क्रांति की ज्वाला में स्त्री-पुरुषों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। आख़िर जब वह एक छोटे से मकान में चारों ओर से घिर गए थे, तब उनको हथियार छोड़ शरण में आने के लिए कहा गया। सिर्फ़ पाँच लोग ही बचे थे। सब को पूछा गया कि क्या किया जाय? तो तीन लोगों ने शरणागति ही एक मात्र उपाय होने की बात कही। मगर नागजी चारण ने हथियार छोड़ के शरणागत होने के बजाय अंतिम श्वास तक लड़ने की सलाह दी। चारों ओर से गोलियाँ एवं तोप के गोलों की आवाज़ उठ रही थी। उसी क्षण नागजी ने जो गीत गाया, वह आज सौ साल के बाद भी लोगों के रोम-रोम में नई चेतना भरता है। जोधा माणेक और मुलु माणेक हिंदू वाघेर थे, इतना ही नहीं इस गीत को गाने वाला भी चारण था। इसीलिए ओखा जाबेली शब्द का प्रयोग हुआ था। आज उसका अपभ्रंश पंक्ति में ‘अल्ला बेली’ गाया जाता है। नागजी चारण ने हथियार छोड़ने के बजाय वीरता से मर मिटने की बात करते हुए गाया था कि…
ना छंडिया हथियार, ओखा जा बेली;
ना छंडिया हथियार, मरवुं हकडी वार,
मूलूभा बंकडा, ना छंडिया हथियार…
चारण कवियों कि यह विशिष्ट पंरपरा रही है कि मातृभूमि के लिए या जीवनमूल्यों के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले की यशगाथा उन्होंने गायी है, इनाम, या अन्य लालच की अपेक्षा से नहीं।
इस तरह चारण साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि विदेशी और विधर्मी शासकों के सामने चारण कवियों ने सबसे पहले क्रांति की मशाल प्रज्जवलित की है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से बावन वर्ष पूर्व 1805 में ही बांकीदास आशिया ने ब्रितानियों के कुकर्मो का पर्दाफाश किया था। जोधपुर के राजकवि का उत्तरदायित्व निभाते हुए भी बांकीदास ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना चारणधर्म-युगधर्म निभाया था। 1857 से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक शताधिक चारण कवियों ने अपनी सहस्त्राधिक रचनाओं द्वारा भारत के सांस्कृतिक एवं चारणों की स्वातंत्र्य प्रीति का परिचय दिया है।
1857 में स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब फडनवीस के साथ साथ हर प्रांत में से जिन लोगों ने अपने-अपने प्राणों की आहुती दी है, उनका इतिहास में उल्लेख हो इसीलिए भारतीय साहित्य से या अन्य क्षेत्र से प्राप्त कर विविध आधारों का उपयोग करके नया इतिहास सच्चा इतिहास आलेखित हो यही अभ्यर्थना।