दीपक की रोशनी में सच का चेहरा
– डॉ गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
– डॉ गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
दीपावली का पर्व हमारी आस्थाओं के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक रूप से भी हमारे लिए बहुत महत्तवपूर्ण है। दीपावली पर जलने वाले दीपक हर व्यक्ति को उत्साह तथा जीवटता के साथ जीने की उमंग देते हैं। इन्हें देखकर हर व्यक्ति को अपने अंधेरे भविष्य में भी कुछ उम्मीद की किरणें नजर आने लगती है। दीपक की एकटक टिमटिमाहट तथा आंधी और तूफान से लड़ने की जीवटता को देखकर निराश से निराश आदमी भी आशावादी बनकर अपने जीवन को रोशन करने की सोचता है। चौदह वर्ष के वनवास के बाद भगवान श्रीराम का अयोध्या लौटना और उससे इस पर्व का संबंध भी यही हूंस देता है कि लगातार वर्षों तक जंगल में रहने के बावजूद भी श्रीराम का स्थान आखिर उनसे ही भरा जा सकता था, जिसका लोगों ने इंतजार किया। संकेत यह है कि जो काम आपको करना है, उसको कोई दूसरा कर ही नहीं सकता अतः आपको हमेशा अपने कार्य के प्रति दृढ़ संकल्पित रहना चाहिए। हो सकता है कि लोगबाग आज किन्हीं परिस्थितियों के कारण आपके दर्द को नहीं जान पाएं, आपकी महत्ता को नहीं पहचान पाएं लेकिन उनके सुनने या नहीं सुनने से आपके कार्य-व्यवहार पर असर नहीं आना चाहिए तभी आप समय के साथ कदमताल मिला पाएंगे। इस दीपावली के दीपक की रोशनी में अपने तक ही नजर नहीं रखकर जरा देश और दुनियां को भी जानने की कोशिश करें। घरबीती तो रोज ही करते रहे हैं, इस बार थोड़ी परबीती पर विचार करें। वैसे यह परबीती भी वास्तव में घरबीती ही है। दीपक की किरणें एक-एक कर आपको कतिपय कटु सत्यों से रूबरू करवाएगी-
दीपक की पहली किरण आप और हमसे कहेेगी- किसी भी देश में कानून का काम व्यवस्थाएं बनाना है और कानून में ऐसे प्रावधान होते हैं कि जो गैरकानूनी कार्य करें उन्हें दंडित किया जाए लेकिन “जहां पड़ै पैसे की मार, वहां वहां कानून लाचार।”
यह कहकर हमने अपने देश की कानून व्यवस्था की लचरता का आलम बताया और कहा कि देश की आबरू हमारी संसद पर हमला करने वाले आततायी मां भारती के सीने को छलनी-छलनी करते हुए खुलेआम घूम रहे हों, देश के प्रधानमंत्री की नृशंस हत्या करने वाले हत्यारे हमारे सामने सीना तान कर मस्त डोल रहे हों, हिंदु-मस्लिम दंगों के आरोपी ही नहीं आरोप सिद्ध अपराधी सांप्रदायिक सौहार्द के पुरोधा बने बैठे हों, यह चूक किसकी है, विचार करें। लेकिन कानून के घर देर है, अंधेर नहीं की बात साबित हुई और समय के साथ सबके साथ न्याय हुआ। आतताई फाँसी भी चढ़े और शलाखोँ के पीछे पश्चाताप करने को भी मजबूर हुए। मतलब कि हमारा चिंतन एक पक्षीय नहीं होकर सम्यक होना चाहिए। कानून को जब हमारी मदद की जरूरत हो तो हम अच्छे एवं सजग नागरिक की भूमिका निभाते हुए उनका साथ दें, न कि केवल बुराइयों के बखान करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लें।
दीपक की पहली किरण आप और हमसे कहेेगी- किसी भी देश में कानून का काम व्यवस्थाएं बनाना है और कानून में ऐसे प्रावधान होते हैं कि जो गैरकानूनी कार्य करें उन्हें दंडित किया जाए लेकिन “जहां पड़ै पैसे की मार, वहां वहां कानून लाचार।”
यह कहकर हमने अपने देश की कानून व्यवस्था की लचरता का आलम बताया और कहा कि देश की आबरू हमारी संसद पर हमला करने वाले आततायी मां भारती के सीने को छलनी-छलनी करते हुए खुलेआम घूम रहे हों, देश के प्रधानमंत्री की नृशंस हत्या करने वाले हत्यारे हमारे सामने सीना तान कर मस्त डोल रहे हों, हिंदु-मस्लिम दंगों के आरोपी ही नहीं आरोप सिद्ध अपराधी सांप्रदायिक सौहार्द के पुरोधा बने बैठे हों, यह चूक किसकी है, विचार करें। लेकिन कानून के घर देर है, अंधेर नहीं की बात साबित हुई और समय के साथ सबके साथ न्याय हुआ। आतताई फाँसी भी चढ़े और शलाखोँ के पीछे पश्चाताप करने को भी मजबूर हुए। मतलब कि हमारा चिंतन एक पक्षीय नहीं होकर सम्यक होना चाहिए। कानून को जब हमारी मदद की जरूरत हो तो हम अच्छे एवं सजग नागरिक की भूमिका निभाते हुए उनका साथ दें, न कि केवल बुराइयों के बखान करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लें।
दीपक की दूसरी किरण कहती सुनाई देगी- यह देखिए ! देश का निर्मल और निष्कलंक राजनीतिक नेतृत्व, जिसकी एक समय की लोकसभा में 543 में से 162 सांसदों पर आपराधिक मामले हैं, 76 सांसदों पर गंभीर आरोप हैं, 128 पिछली लोकसभा के दागी हैं, उसी समय की बिहार विधान सभा में 243 में से 141 दागी, 85 विधायक ऐसे, जिन पर हत्या तथा हत्या के प्रयास जैसे संगीन आरोप। ऐसी परिस्थितियों में बुद्धिमानों ने लिखना एवं कहना शुरु किया कि व्यवस्थागत विसंगतियां तथा अराजकता आतंकवाद की जननी है और हमारे इस महान राष्ट्र की महान कानून व्यवस्था तो विसंगतियों तथा अराजकताओं के लिए उर्वरा भूमि साबित हो रही है। यही कारण है कि अर्थ की दृष्टि से भ्रष्टाचार, अराजकता और असमानता के दम पर हमने विश्व के भ्रष्टाचारी देशों की जमात में अपना नाम दर्ज करवा लिया। हमारी कानून व्यवस्था तो उस करतार की तरह है जो एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा अवश्य ही खोलता है। भारतीय बैंक नहीं तो स्विश बैंकों का आसान सा रास्ता अपने कालेधन को जमा कराने के लिए इसी कानून व्यवस्था की खिड़की में से ही दिखाई दिया। एक समय के आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद 300 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा कालाधन हमारे देश के लोगों के नाम विदेशी बैंकों में जमा हुआ। वर्तमान सरकार ने इसी मुद्दे पर राजगद्दी पाई लेकिन पाई-पाई के हिसाब वाली अपेक्षा आज भी अधूरी है। सोचिए कौन इसके लिए जिम्मेदार है ?
अरे नहीं अभी आंखें बंद मत कीजिए। आप सिर्फ मुंह घुमा सकते हैं।, इधर भी एक किरण है, सुनिए वह क्या कह रही है- हमारे देश की व्यवस्था की लचरता और जर्जरता की एक फिल्म आपको दिखाती हूं। एक-एक दृश्य पर गौर चाहूंगी- देश में शिक्षा की अनिवार्यता का कानून होते हुए भी अशिक्षितों की भीड़ है, जहां शतप्रतिशत रोजगार की गारंटी के कानून के बावजूद बेरोजगारों का हुजूम है, जहां धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक स्वीकारोक्ति के कानून के उपरान्त धर्म के नाम पर कतलेआम होता है, जहां सामाजिक समरसता के नाम पर लागू किया गया आरक्षण जन-जन की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुका है, जहां संपूर्ण नागरिकों के स्वास्थ्य की गारंटी के बावजूद प्रतिदिन रोगग्रस्त होकर मरने वालों का आंकड़ा सकते में डालने वाला हो और इससे भी आगे मान्यवर ! जन कल्याण तथा जनता के दुखदर्द में उसका साथ देने वाले विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र भारत में प्रतिदिन भूखमरी तथा कुपोषण के कारण हजारों लोग काल ब्याल के ग्रास होते हैं । इन तमाम विफलताओं के पीछे कौन जिम्मेदार है ?
दूसरी तरफ भी देखिए जनबा, यह किरण भी कुछ दिखाने को बेताब है-
अरे नहीं अभी आंखें बंद मत कीजिए। आप सिर्फ मुंह घुमा सकते हैं।, इधर भी एक किरण है, सुनिए वह क्या कह रही है- हमारे देश की व्यवस्था की लचरता और जर्जरता की एक फिल्म आपको दिखाती हूं। एक-एक दृश्य पर गौर चाहूंगी- देश में शिक्षा की अनिवार्यता का कानून होते हुए भी अशिक्षितों की भीड़ है, जहां शतप्रतिशत रोजगार की गारंटी के कानून के बावजूद बेरोजगारों का हुजूम है, जहां धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक स्वीकारोक्ति के कानून के उपरान्त धर्म के नाम पर कतलेआम होता है, जहां सामाजिक समरसता के नाम पर लागू किया गया आरक्षण जन-जन की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुका है, जहां संपूर्ण नागरिकों के स्वास्थ्य की गारंटी के बावजूद प्रतिदिन रोगग्रस्त होकर मरने वालों का आंकड़ा सकते में डालने वाला हो और इससे भी आगे मान्यवर ! जन कल्याण तथा जनता के दुखदर्द में उसका साथ देने वाले विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र भारत में प्रतिदिन भूखमरी तथा कुपोषण के कारण हजारों लोग काल ब्याल के ग्रास होते हैं । इन तमाम विफलताओं के पीछे कौन जिम्मेदार है ?
दूसरी तरफ भी देखिए जनबा, यह किरण भी कुछ दिखाने को बेताब है-
यहां देखो घोटाला, घफला, भ्रष्ट्राचार ।
नेताओं के मेल मेें घोटाला,
खिलाड़ियों के खेल मे घोटाला,
व्यापारियों के तेल में घोटाला,
अपराधियों की जेल में घोटाला,
यहां तक की हमारी रेल में घोटाला।
नेताओं के मेल मेें घोटाला,
खिलाड़ियों के खेल मे घोटाला,
व्यापारियों के तेल में घोटाला,
अपराधियों की जेल में घोटाला,
यहां तक की हमारी रेल में घोटाला।
आम आदमी, मजदूर तथा किसान के हक का पैसा इन कानून के रखवालों का दास है।
दीपक की रोशनी में यह विचार हमें करना ही होगा कि जो कुछ हो रहा है, क्या में इसे रोकने में कहीं कोई भूमिका अदा कर सकता हूं ? क्या इस मकड़जाल के फैलने या फैलाने में मेरा कोई योगदान रहा है ? विचार करें और अपनी और से परिस्थितियों को सही करने की कोशिश करें। आरोप-प्रत्यारोपों से कभी किसी अव्यवस्था में सुधार नहीं हुआ है और ना ही मात्र भाषण या लेखन से कुछ बदलने वाला है। इस संक्रांति के दौर में तो हम सबको यथाशक्य प्रयास करना ही चाहिए। वर्तमान दौर में अर्थ का लालच इतना हावी हुआ है कि लोगों की संवेदना सूख चुकी है, करुणा मर चुकी है, दया दरिद्रता का दंश झेल रही है तथा क्षमा खुद क्षमा मांगने को मजबूर है। संवेदन हीनता की पराकाष्टा देखिए हमारी तमाम व्यवस्थाओं की वकालत करने वाले हमारे मित्र क्या भूल गए उन बहनों की राखी के लिए सजी थालियों की गंभीर आहों को, क्या भूल गए मेरे मित्र उन माताओं की रोती-बिलखती बूढ़ी आंखों को, क्या भूल गए उन ललनाओं की अनन्त वैधव्य के झंझावत से टकराती चीख-चिल्लाहटों को। कैसी विडम्बना है-
सजा देने वाले रजा पूछते हैं।
जीने की हमसे वजा पूछते हैं,
देते हैं खुद ही जहर हमको आकर,
असर कितना हुआ, फिर पूछते हैं।
दीपक की रोशनी में यह विचार हमें करना ही होगा कि जो कुछ हो रहा है, क्या में इसे रोकने में कहीं कोई भूमिका अदा कर सकता हूं ? क्या इस मकड़जाल के फैलने या फैलाने में मेरा कोई योगदान रहा है ? विचार करें और अपनी और से परिस्थितियों को सही करने की कोशिश करें। आरोप-प्रत्यारोपों से कभी किसी अव्यवस्था में सुधार नहीं हुआ है और ना ही मात्र भाषण या लेखन से कुछ बदलने वाला है। इस संक्रांति के दौर में तो हम सबको यथाशक्य प्रयास करना ही चाहिए। वर्तमान दौर में अर्थ का लालच इतना हावी हुआ है कि लोगों की संवेदना सूख चुकी है, करुणा मर चुकी है, दया दरिद्रता का दंश झेल रही है तथा क्षमा खुद क्षमा मांगने को मजबूर है। संवेदन हीनता की पराकाष्टा देखिए हमारी तमाम व्यवस्थाओं की वकालत करने वाले हमारे मित्र क्या भूल गए उन बहनों की राखी के लिए सजी थालियों की गंभीर आहों को, क्या भूल गए मेरे मित्र उन माताओं की रोती-बिलखती बूढ़ी आंखों को, क्या भूल गए उन ललनाओं की अनन्त वैधव्य के झंझावत से टकराती चीख-चिल्लाहटों को। कैसी विडम्बना है-
सजा देने वाले रजा पूछते हैं।
जीने की हमसे वजा पूछते हैं,
देते हैं खुद ही जहर हमको आकर,
असर कितना हुआ, फिर पूछते हैं।
अगली किरण की रोशनी में कानून के रखवाले तथा आर्थिक समानता के पैरोकारो की स्थिति देखिए- सीमा पर अपनी जान कुर्बान करने वाले शहीद की विधवा से पैट्रोल पंप आवंटन के वक्त रिश्वत लेते इनके हाथ नहीं कांपते ! मृतराज्य कर्मचारी को अनुकंपात्मक नौकरी देने के बदले घूस लेने में इनका जमीर इन्हें रोकता नहीं ! किसी लाचार महिला को सरकार की योजनाओं के वाजिब लाभ देन के बदले ब्लैकमेल करने में इन्हें लज्जा नहीं आती ! किसी निर्दोष महिला, वृद्ध तथा बच्ची के साथ होने वाली हृदयविदारक घटनाएं इन्हें विचलित नहीं करती ! समाज का जिम्मेदार वर्ग जबाब दें कि क्या इन सबका कारण सिर्फ सरकार या राजनेता हैं। क्या इन विषम परिस्थितियों को पैदा करने में हमारी अपनी जीवनशैली और हमारी मानसिकता का कोई हाथ नहीं है। बचपन में जब कबूतर और बिल्ली की कहानी पढ़ी, जिसमें कबूतर ने बिल्ली को आते हुए देखकर आंखें बंद कर ली और मन ही मन सोचने लगता है कि बिल्ली को अब दिखाई कैसे देगा।
हमारे बालमन को लगता था कि कबूतर कितना मूर्ख है उसके आंख बंद करने से बिल्ली की नजर कैसे बंद होगी ? लेकिन अब समझ में आया कि हम खुद भी तो रोज ऐसा ही करते हैं, पड़ौस में चोर आया, डाकू आया, लड़ाई-झगड़ा हुआ, पड़ौसी पर अन्याय-अत्याचार हुआ और हमने घर में घुस कर यह सोचा कि हमारा क्या लिया हमारे साथ तो हुआ नहीं ! हम क्यों टेंशन लें। लेकिन यह नहीं सोचा कि जो आज मेरे पड़ौसी के साथ हुआ है, वह कल अवश्य ही मेरे साथ होने वाला है। समय का सच यही है, इसे स्वीकार करना पड़ेगा।
परिस्थितियां यही नहीं रुकी है। एक पिता को अपने जवान बेटे से उसके देरी से घर आने का कारण पूछने में भीतर ही भीतर भयंकर डर लगता है। एक मां अपनी बेटी के कमरे में जाने से पहले पचास बार सोचने को मजबूर है कि कहीं बेटी की प्राइवेसी भंग न हो जाए। बड़ा भाई छोटे भाई को यह कहने में बहुत घबराता है कि हमारे घर की कुल-परंपराएं अमुख कार्य की अनुमति नहीं देती। इससे भी आगे सुनिए यदि घर में कोई मेहमान आ जाएं और दो-चार दिन के लिए घर के जवान बेटे या बेटी को अपना कमरा मेहमानों के साथ साझा करना पड़े तो घर में कोहराम मच जाता है। और तो और यदि मां को किसी दिन अपनी बेटी के कमरे में रात को सोना पड़ जाए तो बेटी उसे अपनी तोहीन से कम नहीं समझती और कईबार ऐसी घटनाएं भी घट जाती हैं कि घर में कोहराम मच जाता है। ऐसे में विचार करने पर लगता है कि क्या हमारे पास वो नैतिक बल भी जिंदा है, जिसके आधार पर हम किसी अन्याय या अत्याचार का विरोध कर सकें या पीड़ित का खुलकर साथ दे सकें।
परिस्थितियां यही नहीं रुकी है। एक पिता को अपने जवान बेटे से उसके देरी से घर आने का कारण पूछने में भीतर ही भीतर भयंकर डर लगता है। एक मां अपनी बेटी के कमरे में जाने से पहले पचास बार सोचने को मजबूर है कि कहीं बेटी की प्राइवेसी भंग न हो जाए। बड़ा भाई छोटे भाई को यह कहने में बहुत घबराता है कि हमारे घर की कुल-परंपराएं अमुख कार्य की अनुमति नहीं देती। इससे भी आगे सुनिए यदि घर में कोई मेहमान आ जाएं और दो-चार दिन के लिए घर के जवान बेटे या बेटी को अपना कमरा मेहमानों के साथ साझा करना पड़े तो घर में कोहराम मच जाता है। और तो और यदि मां को किसी दिन अपनी बेटी के कमरे में रात को सोना पड़ जाए तो बेटी उसे अपनी तोहीन से कम नहीं समझती और कईबार ऐसी घटनाएं भी घट जाती हैं कि घर में कोहराम मच जाता है। ऐसे में विचार करने पर लगता है कि क्या हमारे पास वो नैतिक बल भी जिंदा है, जिसके आधार पर हम किसी अन्याय या अत्याचार का विरोध कर सकें या पीड़ित का खुलकर साथ दे सकें।
जब घर-घर में ऐसी आग लगी है तब भी सारा जनमानस अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग में लगा हुआ है। देश और समाज के बारे में कौन सोचे ? आज भी भारत के प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक से भारत माता के चंद सवाल प्रतिपल सामने हैं- चाइना के कब्जे में पड़ी भारतीय भूमि, राष्ट्र की मुख्य धारा से कटने को अभिशप्त जम्मू-कष्मीर, उल्फा की आग में एक बार जलने के बाद अब भी सहमा हुआ आसाम, खालिस्तान के दंष को झेल चुका पंजाब, कभी राममंदिर के निर्माण तथा कभी बाबरी मस्जिद के ध्वंश की राजनीति का शिकार उत्तरप्रदेश, गोधरा जैसे व्यापक नरसंहार को दिल पर पत्थर रखकर सहन करने को मजबूर गुजरात क्या चीख-चीख कर ऐसा नहीं कह रहे हैं कि कब तक चलेगा यह छुपाछुपी का खेल। स्थिति यह है कि मातृभूमि की रक्षार्थ सीमा पर अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले शहीदों की लाश को देखकर भी कानून के रखवालों की भावनाएं उबलती नहीं, ये उन पर भी अपने स्वार्थ की रोटियां सेकने में मशगूल हो रहे हैं। इन्होंने तो एक ही संकल्प ले रखा है राम नाम जपना, पराया माल अपना। संसद जिसे संविधान द्वारा प्रदत्त राजनीतिक प्रणाली का शिखर कहा जा सकता है वह हमारे लोकतंत्र के पतन का दर्पण बन गई है। एक समय के आंकड़े ये बयाँ करते हैं कि –
सांसद संसद में जनहितार्थ प्रश्न पूछने के पैसे लेते हैं ! पैसे लेकर प्रष्नकाल में सदन से अनुपस्थित रहते हैं। केवल भत्ता पाने के लिए हाजरी लगाते हैं। महंगाइ, बेरोजगारी तथा ऐसे ही अन्य संवेदनशील मुद्दों पर सदन खाली रहता। जब बजट पास करने का वक्त आता है तो बिना बहस के बजट पास हो जाता है। संसद का अधिकांष समय नारेबाजी करने, अध्यक्ष की कुर्सी के सामने ऊधम मचाने, सदन से बहिर्गमन करने तथा कार्य स्थगन में खप जाता है। क्या इसके लिए हम कहीं जिम्मेदार नहीं है ?
भारत में कानून के द्वारा लगी अनिवार्यताओं तथा उनके परिणामों के चंद उदाहरण आपके सामने रखता हूं- हम दो हमारे दो की अनिवार्यता वाले देश में हम दो हमारे नौ सामान्य बात है। बिजली बचाओ, पानी बचाओ, सबको पढ़ाओ की रट लगाने वाले प्रदेश में बिजली मीटर बंद करके बचाई जाती है, पानी की लाइन को घर के सामने से तोड़ कर अपने घर में संचय किया जाता है तथा सबको पढ़ाओं का नारा सर्वशिक्षा अभियान की फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है। मिड डे मील शिक्षा से भी ज्यादा अनिवार्य हो गया और शिक्षा पर भारी पड़ने लगा है, सेवा के नाम पर बीपीएल परिवारों को अनिवार्य रूप से वितरित की जाने वाली राशन सामग्री किस-किसके भंडारों में भरी जा रही है।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की दरकार नहीं होती। एक सामान्य आर्थिक स्थिति वाला व्यक्ति यदि सरपंच भी बन जाता है तो महानरेगा रूपी टकसाल को संचालित कर सात पीढ़ियों तक को धनधान्य से संपन्न करने में सफल हो जाता है। तो फिर विधायक, सांसद, मंत्री तथा मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री का तो कहना ही क्या ? आर्थिक आतंकवाद एक दुधारी तलवार है जो दोनों तरफ से गरीबों को काटती है। देखिए अपने घरों में असंख्य हाथों से धन भरने वाला हमारा नेतृत्व राष्ट्रीय राजकोष को बड़े मुक्तहस्त होकर लुटाते हैं और तरह-तरह के खर्चे करते हैं। एक झांकी देखिए-
मंत्री की रक्षा पे खर्चा, तंत्री की इच्छा पे खर्चा।
मध्यावधि चुनाव पे खर्चा, वोटबैंक के भाव पे खर्चा।
हर गुंडे के कद पे खर्चा, हर दंगे के मद पे खर्चा।
हर सियासी हथियार पे खर्चा, व्यापक नर संहार पे खर्चा।
जातिवाद की आग पे खर्चा, तुष्टीकरण के नाग पे खर्चा।
पंच और प्रधान पे खर्चा, मरघट औ श्मशान पे खर्चा।
जिंदा-मुर्दा लाश पे खर्चा, देश के सत्यानाश पे खर्चा।।
सांसद संसद में जनहितार्थ प्रश्न पूछने के पैसे लेते हैं ! पैसे लेकर प्रष्नकाल में सदन से अनुपस्थित रहते हैं। केवल भत्ता पाने के लिए हाजरी लगाते हैं। महंगाइ, बेरोजगारी तथा ऐसे ही अन्य संवेदनशील मुद्दों पर सदन खाली रहता। जब बजट पास करने का वक्त आता है तो बिना बहस के बजट पास हो जाता है। संसद का अधिकांष समय नारेबाजी करने, अध्यक्ष की कुर्सी के सामने ऊधम मचाने, सदन से बहिर्गमन करने तथा कार्य स्थगन में खप जाता है। क्या इसके लिए हम कहीं जिम्मेदार नहीं है ?
भारत में कानून के द्वारा लगी अनिवार्यताओं तथा उनके परिणामों के चंद उदाहरण आपके सामने रखता हूं- हम दो हमारे दो की अनिवार्यता वाले देश में हम दो हमारे नौ सामान्य बात है। बिजली बचाओ, पानी बचाओ, सबको पढ़ाओ की रट लगाने वाले प्रदेश में बिजली मीटर बंद करके बचाई जाती है, पानी की लाइन को घर के सामने से तोड़ कर अपने घर में संचय किया जाता है तथा सबको पढ़ाओं का नारा सर्वशिक्षा अभियान की फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है। मिड डे मील शिक्षा से भी ज्यादा अनिवार्य हो गया और शिक्षा पर भारी पड़ने लगा है, सेवा के नाम पर बीपीएल परिवारों को अनिवार्य रूप से वितरित की जाने वाली राशन सामग्री किस-किसके भंडारों में भरी जा रही है।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की दरकार नहीं होती। एक सामान्य आर्थिक स्थिति वाला व्यक्ति यदि सरपंच भी बन जाता है तो महानरेगा रूपी टकसाल को संचालित कर सात पीढ़ियों तक को धनधान्य से संपन्न करने में सफल हो जाता है। तो फिर विधायक, सांसद, मंत्री तथा मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री का तो कहना ही क्या ? आर्थिक आतंकवाद एक दुधारी तलवार है जो दोनों तरफ से गरीबों को काटती है। देखिए अपने घरों में असंख्य हाथों से धन भरने वाला हमारा नेतृत्व राष्ट्रीय राजकोष को बड़े मुक्तहस्त होकर लुटाते हैं और तरह-तरह के खर्चे करते हैं। एक झांकी देखिए-
मंत्री की रक्षा पे खर्चा, तंत्री की इच्छा पे खर्चा।
मध्यावधि चुनाव पे खर्चा, वोटबैंक के भाव पे खर्चा।
हर गुंडे के कद पे खर्चा, हर दंगे के मद पे खर्चा।
हर सियासी हथियार पे खर्चा, व्यापक नर संहार पे खर्चा।
जातिवाद की आग पे खर्चा, तुष्टीकरण के नाग पे खर्चा।
पंच और प्रधान पे खर्चा, मरघट औ श्मशान पे खर्चा।
जिंदा-मुर्दा लाश पे खर्चा, देश के सत्यानाश पे खर्चा।।
इसके लिए जिम्मेदार है हमारी लचर कानून व्यवस्था और सबसे ज्यादा जिम्मेदार है हमारे जनताजनार्दन की खैरसल्ला कहने और समझने की आदत। हमारा जनतंत्र जनता की जागरुकता के बल पर सफल हो सकता है लेकिन जनता तो मात्र मूकदर्शक बनकर बैठी है। जिस तरह दीपक सारी दुनियां को रोशन करता है, सारे संसार की छवि सबके सामने स्पष्ट करता है लेकिन स्वयं अपने आसपास के अंधेरे को वह नजरअंदाज करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है कि आदमी को अपने आसपास के चहेते लोगों की गलतियां नजर आती ही नहीं क्योंकि वह अपने परिवेश के मोहपाश में बंधा हुआ रहता है। यदि उस परिवेश में से कोई एकआध व्यक्ति उस अंधेरे को चिह्नित करने की कोशिश भी करे तो बाकी लोग उसे सनकी या नकारात्मक छवि वाला कहकर उसकी उपेक्षा कर देते हैं। यद्यपि उपेक्षा करने वाला तबका भी छोटा ही है लेकिन वह तबका प्रभावशाली लोगों का तबका है अतः दूसरे बड़े तबके के लोग अपने आपको इन घटनाक्रमों से अलग करने में लगे रहते हैं। दीपक का कार्य तो सच का चेहरा दिखाना होता है बाकी तो देखने वालों को सोचना है कि इस सच से उनका क्या संबंध है तथा उन्हें किस तरह अपनी भावी योजनाएं बनानी हैं। कुछ इस रोशनी में भी व्यवस्थाओं की पोल देखकर अपना ढोल बजाने की कोशिश करें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं पर अधिकांश को अपनी जिम्मेदारी समझ कर अपना स्वयं का कार्य निष्ठा से करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। खुद सुधरे तो संसार स्वयं सुधरेगा। बाकी बातें करने या दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से कोई सुधार की गुंजाइश नहीं रहती अतः इस दीपावली को दीपक की रोशनी में दूसरों की कमियां खोजने की बजाय अपनी अच्छाइयां तथा खूबियां पहचानें, जिनके आधार पर आप देश-समाज का भला कर सकें तथा अपने जीवन को धन्य बना सकें। दीपावली कीरा अग्रिम शुभकामनाएँ । राम-राम सा। …………………