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शक्तिपीठ हिगलाज माता

शक्तिपीठ हिगलाज माता

पूरा नामहिगलाज माता
माता पिता का नाम 
जन्म व जन्म स्थान 
स्वधामगमन
 
विविध
आज के पाकिस्तान, कराची के पास बलूचिस्तान कोहला पहाड़ में इनका स्थान, ब्रह्माचारिणी ओर धर्मशास्त्रों के प्रारंगत तपस्विनी, इनको सरस्वती ओर ब्रह्मणी के रूप में जाना जाता है

 जीवन परिचय

आज के पाकिस्तान, कराची के पास बलूचिस्तान कोहला पहाड़ में इनका स्थान, ब्रह्माचारिणी ओर धर्मशास्त्रों के प्रारंगत तपस्विनी, इनको सरस्वती ओर ब्रह्मणी के रूप में जाना जाता है

पाकिस्तान में स्थित कई प्राचीन हिंदू मंदिरों में से सबसे ज़्यादा महत्व जिन मंदिरों का माना जाता है उन्हीं में से एक है हिंगलाज माता का मंदिर. ये वही स्थान है जहाँ भारत का विभाजन होने के बाद पहली बार कोई आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल गया है. इस अस्सी सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई की पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने और इस यात्रा को सफल बनाने में एहम भूमिका निभाई पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने.

हिंगलाज के इस मंदिर तक पहुँचना आसान नहीं है. मंदिर कराची से 250 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में बलूचिस्तान प्रांत में स्थित है. हिंदू और मुसलमान दोनों ही इस मंदिर को बहुत मानते हैं. पाकिस्तान स्थित हिंगलाज सेवा मंडली हर साल लोगों को मंदिर तक लाने के लिए यात्रा आयोजित करती है. हिंगलाज सेवा मंडली की ओर से यात्रा के प्रमुख आयोजक वेरसीमल के देवानी कहते हैं कि मुसलमानों के बीच ये स्थान “बीबी नानी” या सिर्फ़ “नानी” के नाम से जाना जाता है.

शक्तिपीठ:
हिंगलाज हिंदुओं के बावन शक्तिपीठों में से एक है. मंदिर काफ़ी दुर्गम स्थान पर स्थित है पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव की पत्नि सती के पिता दक्ष ने जब शिवजी की आलोचना की तो सती सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने आत्मदाह कर लिया. माता सती के शरीर के 52 टुकड़े गिरे जिसमें से सिर गिरा हिंगलाज में. हिंगोल यानी सिंदूर, उसी से नाम पड़ा हिंगलाज. हिंगलाज सेवा मंडली के वेरसीमल के देवानी ने बीबीसी को बताया कि चूंकि माता सती का सिर हिंगलाज में गिरा था इसीलिए हिंगलाज के मंदिर का महत्व बहुत अधिक है.

कनफ़ड़ योगी:
इस पुरातन स्थान को फिर से खोजने का श्रेय जाता है कनफ़ड़ योगियों को जिस हिंगलाज मंदिर में आज भी जाना मुश्किल है वहीं कई सौ साल पहले कान में कुंडल पहनने वाले ये योगी जाया करते थे. इस कठिन यात्रा के दौरान कई योगियों की मौत हो जाती थी जिनका पता तक किसी को नहीं चल पाता था. कहा जाता है कि इन्हीं कनफ़ड़ योगियों के भक्ति के तरीके और इस्लामी मान्यताओं के मिलने से सूफ़ी परंपरा शुरू हुई. सिंधी साहित्य का इतिहास लिखने वाले प्रोफ़ेसर एल एच अजवाणी कहते हैं, “ईरान से आ रहे इस्लाम और भारत से भक्ति-वेदांत के संगम से पैदा हुई सूफ़ी परंपरा जो सिंधी साहित्य का एक अहम हिस्सा है.”

कुछ धार्मिक जानकारों का मानना है कि रामायण में बताया गया है कि भगवान श्रीराम हिंगलाज के मंदिर में गए थे.

मान्यता है कि उनके अलावा गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव और कई सूफ़ी संत भी इस मंदिर में पूजा अर्चना कर चुके हैं.

हिंगलाज का नाम मेरे लिए इतिहास, साहित्य और आस्था की आवाज़ थी मगर जब मैं हिंगलाज की यात्रा पर निकली तो यह क्षेत्र मेरे लिए प्रकृति और भूगोल की पुकार बन गया. कराची से वंदर, ओथल और अगोर तक की दो सौ पैंतालीस किलोमीटर की लंबी यात्रा के दौरान जंगल भी बदलते मंजरों की तरह मेरे साथ-साथ चल रहा था. हिंगलाज के पहाड़ी सिलसिले तक पहुँचते-पहुँचते हमने प्रकृति के चार विशालकाय दृश्यों को एक जगह होते देखा. यहाँ जंगल, पहाड़, नदी और समुद्र साथ-साथ मौजूद हैं. प्रकृति के इतने रंग कहीं और कम ही देखने को मिलते हैं.

हिंगलाज मुसलमानों के लिए ‘नानी पीर’ का आस्ताना और हिंदुओं के लिए हिंगलाज देवी का स्थान है.

लसबेला के हिंदुओं की सभा के लीला राम बताते हैं कि हिंदू गंगाजल में स्नान करें या मद्रास के मंदिरों में जाप करें, वह अयोध्या जाएँ या उत्तरी भारत के मंदिरों में जाकर पूजा-आर्चना करें, अगर उन्होंने हिंगलाज की यात्रा नहीं की तो उनकी हर यात्रा अधूरी है.

हिंगलाज में हर साल मार्च में हजारों हिंदू आते हैं और तीन दिनों तक जाप करते हैं. इन स्थानों के दर्शन करने वाली महिलाएँ हाजियानी कहलाती हैं और इनको हर उस स्थान पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है जहाँ हिंदू धर्मावलंबी मौजूद हैं. हिंगलाज में एक बड़े प्रवेश द्वार से गुज़र कर दाख़िल हुआ जाता है. यहाँ ऊपर बाईं ओर पक्के मुसाफ़िरख़ाने बने हुए हैं. दाईं ओर दो कमरों की अतिथिशाला है. आगे पुख़्ता छतों और पक्के फ़र्श का विश्रामालय दिखाई देता है. मगर आपके ख़याल में यहाँ की आबादी कितनी होगी? अगर आप को आश्चर्य न हो तो यहाँ की कुल संख्या सैकड़े के आंकड़े से ज़्यादा नहीं है.

निवासी:
दस दिन पहले यहाँ केवल कफमन और जानू रहा करते थे. लच्छन दास और जान मोहम्मद अंसारी लेग़ारी को लसबेला की हिंदूसभा दो-दो हज़ार रुपए प्रति माह देती है. लच्छन का संबंध थरपारकर से है जबकि जानू हिंगलाज से आधे घंटे पैदल के फ़ासले पर हिंगोल नदी के किनारे की एक बस्ती में रहता है.

कमू अभी दस रोज़ पहले ही इस स्थान का निवासी बना है. कमू सिंध के शहर उमरकोट का रहने वाला है. इसके माँ-बाप बचपन में ही गुज़र गए थे. भाई ने किसी बात पर पिटाई कर दी तो वह घर छोड़ कर कराची में एक हिंदू सेठ के यहाँ नौकरी करने लगा. यहाँ पर इसकी उम्र बीस वर्ष हो गई. दस रोज़ पहले उसने सेठ से पैसे मांगे तो उसे सिर्फ पंद्रह रुपए मिले और उसने कराची से हिंगलाज तक तीन सौ मील का सफ़र पैदल चलते और अनेक लोगों से लिफ्ट लेकर तय किया. कमू ने कहा कि मेरी ज़िंदगी सफल हो गई है. “मैं बहुत शांति से हूँ, मैं माता के चरणों में आ गया हूँ. अब मैं अपना जीवन यहीं बिताउंगा.” हिंदूसभा ने यात्रियों के खाने के लिए जो दान यहाँ रख छोड़ा है इसमें से लच्छन, जानू और कमू भी अपना पेट भरते हैं.

काली माँ
कहा जाता है कि हिंगलाज माता के मंदिर में गुरु नानक और शाह अब्दुल बिठाई हाज़िरी दे चुके हैं. लच्छन दास का कहना है कि हिंगलाज माता ने यहाँ पर गुरू नानक और शाह लतीफ का दिया दूध पिया था. कमू से हमारी मुलाकात हिंगलाज माता के स्थान पर हुई. हिंगलाज माता के स्थान पर पहुंचने के लिए पक्की सीढियाँ बनाई गई हैं. यहाँ हिंगलाज शिव मंडली का बक्सा रखा गया है जहाँ लोग रक़म डालते हैं, यहाँ अबीर भी है जिसे पुजारी माथे पर लगाते हैं. कमू ने भी माथे पर तिलक लगा रखा है. मैं कमू से भजन सुनाने का आग्रह करती हूँ वह दो-तीन भजन सुनाता है. मैं माता के पटों के नीचे रखे प्रसाद को देखती हूँ जिसे सिर्फ महिलाएँ ही देख सकती हैं. और फिर पटों से उन्हें ढक देती हूँ. शाम के ढलते साए के साथ मैं वापसी की शुरूआत करती हूँ. अभी मैं बीस क़दम भी नहीं चली कि पीछे कमू की आवाज़ गूंजी.

जय जगदीस हरे, स्वामी जय जगदीस हरे
संत जनों के संकट, दास जनों के संकट…

मैं हिंगलाज के पुख़्ता विश्राम घरों और पुजारियों के आवासों की तरफ़ बढ़ रही हूँ, पीछे कमू की आवाज़ आ रही हैः

तुम ही माता, तुम ही पिता, तुम ही तुम हो माँ..
ओ माँ… ओ माँ…ओ माँ…


આઈ હિંગુલાદેવી અથવા માતાજી હિંગળાજ – ચારણ પુત્રી આઈ હિંગળાજને આઈ (આદિ ) આવડનો અવતાર માનવામાં આવે છે. એમના પિતાનું નામ કાર્પેટિક અથવા કાપડિયાજી હતું, એમ જન શ્રુતિ કહે છે. આઈ હિંગળાજ પરણેલાં નહિ. આજન્મ કૌમાર – બ્રહ્મચર્ય વ્રત પાળેલું. એમનું પૂજન બ્રહ્માણી – મહાસરસ્વતી તરીકે કરવામાં આવે છે. એ પોતે ધર્મશાસ્ત્રોમાં પારંગત વિદુષી અગમ નિગમની સૂઝ – વાળાં મહા તપસ્વિની હતાં. વિશેષમાં કર્મ યોગિની હતાં. પૃથુરાજાના સમયમાં જ્યારે ચારણો હિમાલયનાં દુર્ગમ પહાડી સ્થાનો છોડીને ભારતવર્ષનાં મેદાનોમાં ઉતરી આવ્યા, ત્યારે એમનું એક જુથ (ખાસ કરીને તુંબેલો તથા તેમની સાથે સગપણ વ્યવહારથી સંકળાએલા બીજી શાખાઓના ચારણોનું જુથ) ભારતવર્ષના ઉત્તર – પશ્ચિમ પ્રદેશમાં ઊતરી આવેલું અને તેમણે ત્યાં માતૃપૂજાની ઉપાસના પૂજા ચાલુ રાખેલી. એ જુથનાં આગેવાન આઈ હિંગલાજ હતાં. દેવી હિંગલાજે પશ્ચિમ સરહદની અશિક્ષિત જાતિઓમાં ધર્મ ભાવનાનો પ્રચાર – વિકાસ કરેલો. અને એજ પ્રદેશમાં બલુચિસ્તાનના લાસખેલા વિભાગમાં – કોહલા પર્વત પાસે પોતાનો કાયમ નિવાસ રાખેલો. આખું જીવન ત્યાંજ વ્યતીત કરેલું. ઉપર જણાવ્યું તેમ એમને બ્રહ્માણી સરસ્વતી માનવામાં આવે છે. અને કોહલા (હાલા) પર્વતનાં પ્રદેશનાં અધિષ્ઠાત્રી હોવાને કારણે એમને “કોહલા રાણી” તરીકે પણ સંબોધવામાં આવે છે. ભક્તવર ચારણ મહાત્મા શ્રી ઈસરદાસજીએ હરિરસના મંગળાચરણમાં ‘બ્રહ્માણી’ (સરસ્વતી) અને ‘કોહલા રાણી’ કહીને સ્તુતિ પ્રાર્થના કરતાં ગાયું છે કે;—

रिधि सिधि देयण कोहला राणी !बाला बीज मंत्र ब्रह्माणी !
वयण उकति दे अविरल वाणी, पुणा त्रिक़्त जिम सारंगपाणी ॥

“કોહલા (પર્વત પ્રદેશ) નાં અધિષ્ઠાત્રી એવાં હે હિંગળાજ દેવી! આપ રિદ્ધિ ( અશ્વર્ય સંપત્તિ) અને સિદ્ધિ (દૈવી શક્તિઓ) આપનારાં છો અને ૐકાર બીજ મંત્ર જેનું શુદ્ધ સ્વરૂપ છે. એવાં આપ બ્રહ્માણી અર્થાત્ મહાસરસ્વતી છો. આપ મને અનોઠી ઉક્તિવાળી શુભ દૈવી વાણી આપો, જેનાથી હું સારંગ- પાણિ (શાર્ગ ધનુષ્યને હાથમાં ધારણ કરનારા) એવા શ્રી હરિની કીર્તિનું ગાન કરી શકું”

તપોમૂર્તિ આઈ હિંગળાજની ધર્મ ધગશ અને માતૃવાત્સલનો આર્યાવર્તમાં ખૂબ પ્રભાવ ફેવાએલો. એમની ધર્મ પ્રસારની કીર્તિ સર્વત્ર પ્રસરી ગયેલી અને પશ્ચિમ ભારતના લોકોને માટે તો એમનું સ્થાન એક મોટું તીર્થ સ્થાન બન્યું. જીવનમાં ઓછામાં ઓછું એક વખત હિંગળાજ પરસવા (હિંગળાજને સ્પર્શવા) જવાની, હિંગલાજની યાત્રાએ જવાની આકાંક્ષા પશ્ચિમ ભારતના જન સમાજમાં સદાય રહેતી આવી છે. આઈ દેવલજીના પિતા ભલાજી સિંહઢાયચ અડવાણે પગે સાત વખત હિંગળાજ પરસી આવેલા. અને આઈ દેવલજીના પતિ બાપલ દેથા (બેચરાજી માતાજીના પિતા ) પણ એજ પ્રમાણે અડવાણે પગે હિંગળાજની સાત વખત યાત્રા કરી આવેલા.

રાજસ્થાન – માળવા – કચ્છ – સૌરાષ્ટ્ર – ગુજરાતના હજારો લોકો વરસો વરસ સંઘ સ્વરૂપે કે એકલા અથવા બે ચારના જુથમાં હિંગળાજ પરસવા જતા. કરાચીથી પશ્ચિમે લાસબેલા પ્રદેશમાં આવેલા એ સ્થાને જવા માટે પગ પાળાજ જવું પડતું. કરાચીથી છ સાત મજલે પહોંચાતું. રા નવઘણ પહેલાના સમયમાં એટલે હજાર વર્ષો ઉપર થઈ ગએલાં આઈ વરવડી પહેલાંએ હિંગળાજની તીર્થ યાત્રાએ જતા કાપડી બાવાઓના સંધોને જમાડય ની હકીકત એ આઇની સ્તુતિ પ્રાર્થ નાના છંદમાં વર્ણવવામાં આવી છે. હિંગળાજની તીર્થ યાત્રા કરી આવનાર સંબંધમાં એક વિશિષ્ટતા એ હતી કે એ તીર્થ યાત્રા કરી આવનારે પોતાનું શેષ જીવન સંયમ નિયમવાળું, કર્મયોગી તપસ્વી સંન્યાસી જેવું ગાળવાનું રહેતું. સંસારના સર્વે પ્રસંગો-કામોમાં એણે અનાસક્ત ભાવથી વર્તવાનું હોય અને મૃત્યુ બાદ એનો છેલ્લો દેહ સંસ્કાર પણ સંન્યાસીને અનુરૂપ કરવાનો રહેતો. એટલે કે એના દેહને અગ્નિ સંસ્કાર ન કરતાં જમીનમાં સમાધિ આપવામાં આવતી. ગૃહસ્થના મૃત્યુ પાછળની ધર્મ ક્રિયાઓ પણ એને માટે કર – વાની રહેતી નહિ.

सन्दर्भ – मातृ दर्शन (पिंगलशीभाई पी. पायक)

चमत्कारिक है हिंगलाज माता का ये शक्तिपीठ, मुसलमान कहते हैं ‘नानी पीर’!

माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान में स्थित है। इस शक्तिपीठ की देखरेख मुस्लिम करते हैं और वे इसे चमत्कारिक स्थान मानते हैं। इस मंदिर का नाम है माता हिंगलाज का मंदिर। हिंगोल नदी और चंद्रकूप पहाड़ पर स्थित है माता का ये मंदिर। सुरम्य पहाड़ियों की तलहटी में स्थित यह गुफा मंदिर इतना विशालकाय क्षेत्र है कि आप इसे देखते ही रह जाएंगे। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि यह मंदिर 2000 वर्ष पूर्व भी यहीं विद्यमान था।

मां हिंगलाज मंदिर में हिंगलाज शक्तिपीठ की प्रतिरूप देवी की प्राचीन दर्शनीय प्रतिमा विराजमान हैं। माता हिंगलाज की ख्याति सिर्फ कराची और पाकिस्तान ही नहीं अपितु पूरे भारत में है। नवरात्रि के दौरान तो यहां पूरे नौ दिनों तक शक्ति की उपासना का विशेष आयोजन होता है। सिंध-कराची के लाखों सिंधी हिन्दू श्रद्धालु यहां माता के दर्शन को आते हैं। भारत से भी प्रतिवर्ष एक दल यहां दर्शन के लिए जाता है।

इस मंदिर पर गहरी आस्था रखने वाले लोगों का कहना है कि हिन्दू चाहे चारों धाम की यात्रा क्यों ना कर ले, काशी के पानी में स्नान क्यों ना कर ले, अयोध्या के मंदिर में पूजा-पाठ क्यों ना कर लें, लेकिन अगर वह हिंगलाज देवी के दर्शन नहीं करता तो यह सब व्यर्थ हो जाता है। वे स्त्रियां जो इस स्थान का दर्शन कर लेती हैं उन्हें हाजियानी कहते हैं। उन्हें हर धार्मिक स्थान पर सम्मान के साथ देखा जाता है।

एक बार यहां माता ने प्रकट होकर वरदान दिया कि जो भक्त मेरा चुल चलेगा उसकी हर मनोकामना पुरी होगी। चुल एक प्रकार का अंगारों का बाड़ा होता है जिसे मंदिर के बहार 10 फिट लंबा बनाया जाता है और उसे धधकते हुए अंगारों से भरा जाता है जिस पर मन्नतधारी चल कर मंदिर में पहुचते हैं और ये माता का चमत्कार ही है की मन्नतधारी को जरा सी पीड़ा नहीं होती है और ना ही शरीर को किसी प्रकार का नुकसान होता है, लेकीन आपकी मन्नत जरूर पुरी होती है। हालांकि आजकल यह परंपरा नहीं रही।
पौराणिक कथानुसार जब भगवान शंकर माता सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लेकर तांडव नृत्य करने लगे, तो ब्रह्माण्ड को प्रलय से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता के मृत शरीर को 51 भागों में काट दिया। मान्यतानुसार हिंगलाज ही वह जगह है जहां माता का सिर गिरा था। इस मंदिर से जुड़ी एक और मान्यता व्याप्त है। कहा जाता है कि हर रात इस स्थान पर सभी शक्तियां एकत्रित होकर रास रचाती हैं और दिन निकलते हिंगलाज माता के भीतर समा जाती हैं।

जनश्रुति है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम भी यात्रा के लिए इस सिद्ध पीठ पर आए थे। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था। उनके नाम पर आसाराम नामक स्थान अब भी यहां मौजूद है। कहा जाता है कि इस प्रसिद्ध मंदिर में माता की पूजा करने को गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव, दादा मखान जैसे महान आध्यात्मिक संत आ चुके हैं।
यहां का मंदिर गुफा मंदिर है। ऊंची पहाड़ी पर बनी एक गुफा में माता का विग्रह रूप विराजमान है। पहाड़ की गुफा में माता हिंगलाज देवी का मंदिर है जिसका कोई दरवाजा नहीं। मंदिर की परिक्रमा यात्री गुफा के एक रास्ते से दाखिल होकर दूसरी ओर निकल जाते हैं। मंदिर के साथ ही गुरु गोरखनाथ का चश्मा है। मान्यता है कि माता हिंगलाज देवी यहां सुबह स्नान करने आती हैं।

यहां माता सती कोटटरी रूप में जबकि भगवान भोलेनाथ भीमलोचन भैरव रूप में प्रतिष्ठित हैं। माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध तीर्थ हैं। इस आदि शक्ति की पूजा हिंदुओं द्वारा तो की ही जाती है इन्हें मुसलमान भी काफी सम्मान देते हैं। हिंगलाज मंदिर में दाखिल होने के लिए पत्थर की सीढिय़ां चढ़नी पड़ती हैं। मंदिर में सबसे पहले श्री गणेश के दर्शन होते हैं जो सिद्धि देते हैं। सामने की ओर माता हिंगलाज देवी की प्रतिमा है जो साक्षात माता वैष्णो देवी का रूप हैं।

जब पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ था और भारत की पश्चिमी सीमा अफगानिस्तान और ईरान थी, उस समय हिंगलाज तीर्थ हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ तो था ही, बलूचिस्तान के मुसलमान भी हिंगला देवी की पूजा करते थे, उन्हें ‘नानी’ कहकर मुसलमान भी लाल कपड़ा, अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र-फलुल और सिरनी चढ़ाते थे। हिंगलाज शक्तिपीठ हिन्दुओं और मुसलमानों का संयुक्त महातीर्थ था। हिन्दुओं के लिए यह स्थान एक शक्तिपीठ है और मुसलमानों के लिए यह ‘नानी पीर’ का स्थान है।

चारणवंशी की कुलदेवी : प्रमुख रूप से यह मंदिर चारण वंश के लोगों की कुल देवी मानी जाती है। यह क्षे‍त्र भारत का हिस्सा ही था तब यहां लाखों हिन्दू एकजुट होकर आराधना करते थे।

कई बार मंदिर को तोड़ना का हुआ प्रयास : मुस्लिम काल में इस मंदिर पर मुस्लिम आक्रांतानों ने कई हमले किए लेकिन स्थानीय हिन्दू अरौ मुसलमानों ने इस मंदिर को बचाया।
कहते हैं कि जब यह हिस्सा भारत के हाथों से जाता रहा तब कुछ आतंकवादियों ने इस मंदिर को क्षती पहुंचाने का प्रयास किया था लेकिन वे सभी के सभी हवा में लटके गए थे।

कैसे जाएं माता हिंगलाज के मंदिर दर्शन को:-
इस सिद्ध पीठ की यात्रा के लिए दो मार्ग हैं- एक पहाड़ी तथा दूसरा मरुस्थली। यात्री जत्था कराची से चल कर लसबेल पहुंचता है और फिर लयारी। कराची से छह-सात मील चलकर “हाव” नदी पड़ती है। यहीं से हिंगलाज की यात्रा शुरू होती है।
यहीं शपथ ग्रहण की क्रिया सम्पन्न होती है, यहीं पर लौटने तक की अवधि तक के लिए संन्यास ग्रहण किया जाता है। यहीं पर छड़ी का पूजन होता है और यहीं पर रात में विश्राम करके प्रात:काल हिंगलाज माता की जय बोलकर मरुतीर्थ की यात्रा प्रारंभ की जाती है।

रास्ते में कई बरसाती नाले तथा कुएं भी मिलते हैं। इसके आगे रेत की एक शुष्क बरसाती नदी है। इस इलाके की सबसे बड़ी नदी हिंगोल है जिसके निकट चंद्रकूप पहाड़ हैं। चंद्रकूप तथा हिंगोल नदी के मध्य लगभग 15 मील का फासला है।
हिंगोल में यात्री अपने सिर के बाल कटवा कर पूजा करते हैं तथा यज्ञोपवीत पहनते हैं। उसके बाद गीत गाकर अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हैं।

मंदिर की यात्रा के लिए यहां से पैदल चलना पड़ता है क्योंकि इससे आगे कोई सड़क नहीं है इसलिए ट्रक या जीप पर ही यात्रा की जा सकती है। हिंगोल नदी के किनारे से यात्री माता हिंगलाज देवी का गुणगान करते हुए चलते हैं। इससे आगे आसापुरा नामक स्थान आता है। यहां यात्री विश्राम करते हैं।
यात्रा के वस्त्र उतार कर स्नान करके साफ कपड़े पहन कर पुराने कपड़े गरीबों तथा जरूरतमंदों के हवाले कर देते हैं। इससे थोड़ा आगे काली माता का मंदिर है। इस मंदिर में आराधना करने के बाद यात्री हिंगलाज देवी के लिए रवाना होते हैं।
यात्री चढ़ाई करके पहाड़ पर जाते हैं जहां मीठे पानी के तीन कुएं हैं। इन कुंओं का पवित्र जल मन को शुद्ध करके पापों से मुक्ति दिलाता है। बस इसके आगे पास ही माता का मंदिर है।

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हिंगलाज मां के सम्बंधित रचनाओं व संस्मरणों को पढ़ने के लिए नीचे शीषर्क पर क्लिक करें-

  • हिंगलाज यात्रा का महत्त्व और बुधगिरीजी महाराज
  • जोगमाया रो जस – गिरधरदान रतनू दासोड़ी
  • श्री दुर्गा-बहत्तरी – महाकवि हिंगऴाजदान कविया
  • हिंगळाज माताजी री स्तुति। – कवि रामचंद्र मोडरी (राणेसर)
  • हिंगल़ाज वंदना – डॉ. नरपत दान आसिया “वैतालिक”
  • माँ हिंगलाज का छंद – कवि अज्ञात
  • करंत देवि हिंगळा – कविराज बचुभाई (जीवाभाई रोहडिया) गढवी
  • हिये दरस री हाम – डॉ. नरपत दान आसिया “वैतालिक”
  • हिंगळाज माताजी री स्तुति – कविराज शंकरदानजी जेठीभाई देथा (लींबडी)
  • हिंगोल़राय री स्तुति – गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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